प्राण ब्रह्म से अथवा प्रकृति रूप माया से उत्पन्न है

नमस्कार मित्रो  ,पिछले अंक में शरीर मे प्राण का अर्थ एवं महत्त्व के विषय में जानकारी दी ।

आज का विषय:- प्राण के प्रकार

प्राण ब्रह्म से अथवा प्रकृति रूप माया से उत्पन्न है। प्राण गत्यात्मक है। इस प्राण की गत्यात्मकता सदागतिक वायु में पायी जाती है, एक अर्थ में प्राण वह सवार है जो वायु रुपी घोड़े पर बैठ कर यात्रा करता है।

देह में मुख्य रूप से पाँच प्राण तथा पाँच उपप्राण हैं।

1.) प्राण

2.) अपान

3.) उदान

4.) समान

5.) व्यान

      1. प्राण:- शरीर में कण्ठ से ह्रदय पर्यन्त जो वायु कार्य करता है, उसे 'प्राण' कहा जाता है।

     कार्य:- यह प्राण नासिका मार्ग , कण्ठ, स्वर तंत्र , वाक इन्द्रिय, अन्न नलिका,श्वसन तंत्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशीलता तथा शक्ति प्रदान करता है।

       2. अपान:- नाभि से नीचे मूलाधार पर्यन्त रहने वाले प्राणवायु को अपान कहते हैं। 

      कार्य:- मल, मूत्र , शुक्र, अधोवायु,गर्भ का नि: सारण इसी वायु के द्वारा होता है।

     3.उदान:- कंठ के ऊपर से सिर पर्यन्त जो प्राण कार्यशील रहता है, उसे उदान कहते हैं।

       कार्य:- कंठ से ऊपर शरीर के समस्त अंगों नेत्र, नासिका एवं सम्पूर्ण मुखमण्डल को ऊर्जा और आभा प्रदान करता है।

       4. समान:-हृदय के नीचे से नाभि पर्यन्त शरीर में क्रियाशीलता प्राणवायु को समान कहते हैं।

       कार्य:- यकृत, आँत, प्लीहा एवं अग्न्याशय सहित सम्पूर्ण पाचन तंत्र की आंतरिक कार्य प्रणाली को नियंत्रित करता है।

       5. व्यान:- यह प्राण शक्ति पूरे शरीर में व्याप्त है।

       कार्य:- यह वायु शरीर की समस्त गति विधियों को नियमित तथा नियंत्रित करती है। सभी अंगों, मांस पेशियों,तंतुओं,सन्धियों एवं नाड़ियों को  क्रियाशीलता , ऊर्जा एवं शक्ति यही व्यान प्राण प्रदान करता है।

       इन पाँच प्राणों के अतिरिक्त शरीर में देवदत्त, नाग ,कृकल, कूर्म एवं धनन्जय नामक पाँच उपप्राण हैं, जो क्रमशः छिकना, पलक झपकना, जम्भाई लेना, खुजलाना, हिचकी लेना आदि क्रियाओं को संचालित करते हैं।

धन्यवाद

शेष अगले भाग में

चेतन तिवारी मो0 9389697206

(योग प्रशिक्षक)

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